20 मार्च, 2017

उभरना और डूबना - -

सूखते आँखों के
किनारे,
टूटे
ख़्वाबों के हैं कतरन
बिखरे हुए दूर
तक फिर
चल
पड़े हम अनजान
मंज़िलों की
ओर, छोड़
आए
बहोत पीछे, वो अपने
- पराए सारे। तमाम
रेत के महल बह
 जाते  हैं
अपने
आप, आसां नहीं 
वक़्त के लहरों
को यूँ  रोक
पाना,
 उभरना या डूबना तो
हैं ज़िन्दगी के दो
पहलू, क़िस्मत
से चाहे, क्यूँ
न मिले
हमें ढेरों  चाँद सितारे।

* *
- शांतनु सान्याल

 
कुछ नमी सी है बाक़ी

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