20 जनवरी, 2016

* हमआहंगी - -

राहरू में मुद्दतों बाद खिले हैं
गुल ए शबाना फिर कोई
याद महकी है दर
गोशा ए
ज़िन्दगी। वरगलाने से लगे
हैं बाद ए मअतर रात
गहराते फिर रास
आने लगी है
मुझको
पुरानी आवारगी। लोग चाहे
जो भी कहें अब लौटना
नहीं मुमकिन,
बहुत
मुश्किल है छोड़ना अब रंग
ज़ाफ़रानी ! नफ़स दर
नफ़स में है यूँ 
समायी
उसकी हमआहंगी।

* *
- शांतनु सान्याल
अर्थ :
राहरू - अहाता
गुल ए शबाना - रातरानी फूल
गोशा ए ज़िन्दगी - जीवन का कोना
बाद ए मअतर - ख़ुशबूदार हवा
नफ़स - सांस, आत्मा
*हमआहंगी - समरसता

14 जनवरी, 2016

वक़्त से पहले - -

स्याह ख़ामोश रात की अपनी ही थी
मजबूरी, यूँ तो आसमान था
लाख सितारों से भरा।
दरअसल बहुत
कुछ की
चाह में कई बार निगाहों से फ़िसल -
जाते हैं रंगीन ख़्वाब और हम
ऊंघते हुए गुज़ार आते हैं
ख़ूबसूरत लम्हात।
हम भटकते
रहते हैँ
यूँ ही उम्रभर न जाने कहाँ कहाँ, जबकि
अंतहीन ख़ुश्बुओं का अम्बार
रहता है बिखरा हुआ,
हमारे पहलू के
आसपास।
दरअसल हम बढ़ती उम्र के साथ ख़ुद
को आईने में देखना भूल जाते हैं
और यहीं से भावनाओं पर
जंग की परत उभरने
लगती है, जो
वक़्त से
पहले हमें बूढ़ा जाती है, और हम दूर
छूटते चले जाते हैं - - -

* *
- शांतनु सान्याल

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