20 दिसंबर, 2015

अब फ़र्क़ नहीं पड़ता - -

हमने ख़ुद ही क़बूला है जुर्म अपना
अब फ़र्क़ नहीं पड़ता, सज़ा ए
मौत पे मुहर किस किस
की है। ये दस्तबंद,
ये ज़ंजीर ए
आहन,*
बदल नहीं सकते मेरी वाबस्तगी ए
रूह उनसे, अब फ़र्क़ नहीं पड़ता
ख़ारिज़ ए जन्नत पे असर
किस किस की है।
हमने तो सब
कुछ पा
लिए उन्हें तहे दिल उतारने के बाद,
अब कोई ख़्वाहिश नहीं बाक़ी
इश्क़ उनका पाने के बाद,
अब ये धूसर ज़मीं ही
लगती है हमें
दिलो जां
से ख़ूबसूरत कहीं, अब फ़र्क़ कुछ भी
नहीं पड़ता, हमें बर्बाद करने में
ये पोशीदा ज़हर किस
किस की है। सज़ा
ए मौत पे मुहर
किस किस
की है।

* *
- शांतनु सान्याल
* लोहा
  

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