05 फ़रवरी, 2014

ख़ूबसूरत शून्यता - -

इक ख़ालीपन सा रहा हमराह
दूर तक, जबकि सब
कुछ था बिखरा
हुआ मेरे
दामन में बेतरतीब, फूल ओ -
महक, रात ओ चांदनी,
फिर भी काँटों की
नोंक पे ठहरी
हुई सी,
शबनमी बूंद ही रही ये मेरी -
ज़िन्दगी, कुछ उलझी
हुई, कुछ अजीब
सी, इक
अंतहीन इंतज़ार या अनबुझ
कोई तिश्नगी, कहना
है मुश्किल, कहाँ
जाना चाहे
दिल
और न जाने कहाँ थी मंज़िल
पोशीदा, मृगतृष्णा थीं
वो परछाइयाँ, या
ख़ुद हमने
चाहा
नीलकंठ होना, फिर भी जो -
कुछ मिला हिस्से में
हमारे, बेशक
ख़ूबसूरत
ही था.

* *
- शांतनु सान्याल

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