26 फ़रवरी, 2014

पर्दा उठते ही - -

इक बहाव या कोई मद्धम नशा, ले 
जाए मुझे रफ़ता रफ़ता, न 
जाने किस अनजानी
राह में, कुछ 
पहचाने 
कुछ अजनबी से चेहरे, कुछ डूबते -
कुछ उभरते किनारे, दरमियां 
अपने है, इक मुसलसल 
कोहरा या ज़माने 
के हमराह 
तुमने भी सीख लिया, मुताबिक़ - -
मौक़ा, रुख़ अपना बदलना,  
ग़लत इसमें कुछ भी 
नहीं, कोई  
नहीं जहान में, जो निभाए क़सम - 
उम्र भर के लिए, बस इक 
नज़र का धोखा है 
अपनापन, 
पर्दा उठते ही किरदार बदल जाते हैं, 
ये ज़मीं ओ आसमां सब कुछ 
रहते हैं अपनी जगह 
कायम, मौसम 
के लेकिन 
हर दौर में तलबगार बदल जाते हैं.

* * 
- शांतनु सान्याल 
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
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