07 दिसंबर, 2013

सुबह की नाज़ुक धूप - -

महकी महकी सी, इस सुबह की नाज़ुक
धूप में है शामिल तू कहीं, आईने
के मनुहार में लिपटी, मेरे
अक्स की गहराइयों
में है गुम तू
कहीं - -
खुली इत्रदान पूछती है अक्सर मुझसे -
कौन है वो ख़ूबसूरत अहसास, जो
मुझसे पहले है, घुला घुला सा
तेरे जिस्म ओ जां में
बड़ी शिद्दत से -
इस क़दर !
ये तेरी मुहोब्बत की है इन्तहां या मेरी
ज़िन्दगी के मानी है तेरी आरज़ू,
कुछ भी हो सकते हैं दर
अमल ए ज़माना,
लेकिन ये
सच है,
कि तू है दूर तक मशमूल मेरी रूह की -
गहराइयों में कही, पुर असर
अंदाज़ में मौजूद - -

* *
- शांतनु सान्याल

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