29 जुलाई, 2012


दो पल ही सही 

चलो जी लें ज़रा, भीगे लम्हों में दो पल 
फिर कल ये बदलियाँ घिरे न घिरे,
किसे ख़बर कब तक रुके, ये 
बंजारों के ख़ेमे, आज 
गुज़र जाएँ  दो 
स्तंभों के 
दरमियाँ, बेखौफ़ इस तरह कि आह भर 
उठे ज़िदगी की स्याह गहराइयाँ, 
न कोई सबब पूछ मेरी 
गुस्ताख़ियों का,
बिखर भी 
जाने दे,
मुझे वादियों में प्यासे सावन की तरह !

- शांतनु सान्याल  
painting by Thomas Kinkade 2
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/

27 जुलाई, 2012

अधूरी ख्वाहिश

तमाम रात मद्धम आंच लिए दिल में 
सुलगता रहा आसमान, फिर 
कहीं जा कर कर ओष
बिखरे ज़मीं पर, 
तन्हा 
मुसाफ़िर और बादलों के बीच चाँद का 
सफ़र, कहीं कोई नाज़ुक तार हो 
जैसे, ख़लाओं में गूंजती रही 
किसी की सदा बार बार,
हमवार पत्तों में 
गिरे बूंदें या 
दिल की 
रग़ों में थी कंपकंपाहट, हर एक  सांस -
में कोई शामिल, हर आह में 
किसी की चाहत, न 
जाने कौन था 
वो, न ही 
नज़दीक, न बहोत दूर, ज़िन्दगी देती रही
आवाज़, ख़ामोश वादियों से यूँ 
टूटकर, भुला न पाया उसे 
चाह कर, फिर वजूद 
निकल चला है 
उसकी 
खोज में दूर तक, शायद वो मिले कहीं -
किसी दरख़्त के साए में, चांदनी 
में अब तलक ठंडक है बाक़ी,
फिर मुझे दे जाए कोई 
जीने के मानी, 
रख जाये 
खुले हथेलियों में उम्मीद के जुगनू, कि 
दिल चाहता फिर तितलियों के 
परों को छूना, खिलते 
पंखुड़ियों को 
देखना,
फिर तेरी हाथों पर मेंहदी से मुक़द्दस कोई  
ग़ज़ल लिखना - - 
- शांतनु सान्याल 

 

26 जुलाई, 2012


आसान नहीं सफ़र 

कोहरे के बाद भी थी, लम्बी सी इक रहगुज़र -
 न देख पाए हम बस लौट आए यूँही ख़ाली हाथ,
  
कल तक तो थे वो सभी, ज़िन्दगी के आसपास 
महकते दायरे में घूमते, आज नहीं है कोई साथ,

वक़्त का अपना ही है हिसाब, कोई ग़लती नहीं -
घने अब्र छाये तो क्या, ज़रूरी नहीं हो बरसात,

असूल ओ फ़िक्र जो भी हों, मंज़िल जुदा कहाँ !
वही रास्ते, मोड़ घुमावदार आसां नहीं निजात,

- शांतनु सान्याल  
silent street


  





23 जुलाई, 2012

पुनर्मिलन की संभावना

मुहाने के तरफ बह चलीं सभी नौकाएं !
उदास बरगद, स्थिर सी हैं झूलती 
जटाएं, मंदिर सोपान छूना 
चाहे उद्वेलित नदी -
धारा, पीतवर्णी
उत्तरीय 
दिगंत रेखा पर त्याग, बढ़ चला सूर्य -
आकाश पथ पर एकाकी, दिवा -
स्वप्न लिए जीवन बैठा 
रहा किनारे पर देर 
तक, भावनाएं 
या कोई 
पुरोहित करे नीरव मंत्रोच्चार, गर्भ गृह 
में पाषाणी भाव जैसे हो चले हों 
जागृत, सतत परिक्रमा !
जन्म व मृत्यु, कभी 
अंधकार आगे 
और कभी 
आलोक, बिहान और सांझ के  दरमियान
एक संधि, अविराम बहाव महा -
सिन्धु की ओर, परिपूर्ण 
निमज्जन, महा 
अपरिग्रह,
निखिल निवृत्ति, न कोई निकट, न कोई 
अपरिचित, सभी चेहरे मुखौटे विहीन,
सभी अपने और सभी पराये, 
अंतहीन पथ के पथिक 
सब, संभव है पुनः 
मिले किसी 
घाट पर,
अप्रत्याशित छिन्न पालदार नौकाओं के साथ - - 

- शांतनु सान्याल
river and reflection




22 जुलाई, 2012


नेपथ्य यात्री 

आलोक सज्जा के मध्य मेरा व्यक्तित्व 
था कदाचित, कुछ कृत्रिम कुछ छद्म -
वेशी, नेपथ्य में प्रतीक्षारत 
अंतर्मन, लेकिन 
मौलिकता 
बचाने
में रहा सदैव प्रयासरत, पारदर्शिता छुपा 
न सकी उम्र की यवनिका, आतंरिक 
और बाह्य के बीच अंतर रहा 
बहुत कम, अहर्निश 
एक मीमांसा,
प्रतिपल 
आत्मविश्लेषण, शाश्वत सत्य और 
जीवन अन्वेषण, सजल बिम्ब 
से मुक्ति कभी नहीं 
संभव, इस 
मोक्ष 
के ऋत्विक बनना नहीं सहज, रिक्त 
हस्त, अदृश्य मोह अर्घ्य, एक 
निरंतर अनल पथ - - - 
- शांतनु सान्याल 
painting by DANE WILLERS 




21 जुलाई, 2012

निगाह ए बागबान - -


अधूरा सफ़र ज़िन्दगी का, लाख चाहो मंज़िल नहीं आसां, 
हर मोड़ पे नयी चाहत, हर पल आँखों से ओझल कारवां,

न मैं वो जिसकी तुझे तलाश, न तूही वो जिसकी है आश,
कुछ भी मेरा नहीं, इक *शिफ़र है, बीच ज़मीं ओ आसमां,

जब चाहे पलट जाओ जब चाहे तोड़ दो, है *माहदा नाज़ुक 
कांच के रिश्तों में है, रफ़्तार ए ज़िन्दगी हर साँस यूँ रवां,

न सोये न ही जागे से हैं जज़्बात, सिर्फ़  दरमियानी सोच, 
गुल खिले तो झड़ना है तै, मजबूर से हैं निगाह ए  बागबां,

- शांतनु सान्याल 


अरबी / फारसी शब्द 
*माहदा - अनुबंध
*शिफ़र - शून्य 

20 जुलाई, 2012

अगोचर यज्ञ शिखा

फिर घिरे हैं बादल ईशान्य कोणी, पुनः जगे
हैं कोंपल सिक्त निद्रा से, नेह बरसे कहीं
थम थम कर, मध्य यामिनी कुछ
स्वप्नील कुछ तंद्रित सी,
एक आहट जो रख
जाए हौले से
मधु गंध
मिश्रित भावना, दहलीज़ पार स्वप्न खड़ा
हो जैसे लिए हाथों में पुष्प गुच्छ,
मायावी रात, बिखर चली है
ज्योत्स्ना, अज्ञात एक
स्पर्श ! फिर छू सा
गया कोई
अंतर्मन के तार नाज़ुक, हृदय स्पंदन -
कुछ चंचल कुछ कमनीय, फिर
महके चन्दन वन, पुनः
जीवन चाहे पवित्र
धूप दहन, देह
बने फिर
देवालय, अदृश्य यज्ञ में हों सर्व अहंकार
विसर्जित, फिर चमके व्यक्तित्व
विशुद्ध स्वर्णिम आभा युक्त,
जीवन का अर्थ हो जाए
सार्थक, फिर
उन्मुक्त
प्राण पिंजर, और विस्तीर्ण आकाश हो -
सम्मुख - - -

- शांतनु सान्याल  
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/




दो ध्रुवों के मध्य 

उस शीर्ष बिंदु और शून्य धरातल के मध्य 
था अंतर बहुत कम, सूर्य का उत्थान 
व पतन, दोनों ही जगह थे 
लालिमा मौजूद,
उभरना 
फिर डूबना, नियति का संविधान सदैव -
अपरिवर्तित, कुछ भी चिरस्थायी 
नहीं, उद्गम में ही छुपा था 
अंत अदृश्य, उस मोह 
में थे लक्ष भंवर,
हर मोड़ पर 
नया 
रहस्योद्घाटन, कभी अन्तरिक्ष पथ पर 
हृदय उड़ान, कभी अनल  भस्मित
जीवन अवसान, उन दो ध्रुवों 
के बीच थे अंतहीन 
अभिलाष, एक 
गंधित 
श्वास, दूजा विलुप्त गामी दीर्घ निःश्वास !

- शांतनु सान्याल 
artist Diane Maxey
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/

18 जुलाई, 2012


सजल मुस्कान 

सघन वर्षा के उपरांत फिर खिली है धूप 
या रहस्यभरी मुस्कान कोई, दे रही 
पुनः  दस्तक ; हृदय द्वार खुल 
चले हों जैसे अपने आप,
ये कैसा चित्रलेख,
गुलाब के 
पंखुड़ियों में ठहरे हुए बूंदें हैं, या किसी के 
सजल व्रत, कौन दे गया बिहान के 
धुंधलके में चुपके से प्रणय 
पत्र ; या फिर कोई 
निशि पुष्प है 
बेचैन 
सुप्त गंध लिए सीने में, फिर सुरभित हैं 
देह प्राण - - 

- शांतनु सान्याल 
 One-Rain-Drop-Leaf
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/

15 जुलाई, 2012


महासत्ता 

शून्यता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं वहां -
फिर भी जीवन से लम्बी है ये मरीचिका,

अज्ञात स्रोत से निर्गत वो अरण्य गंध या 
नभ झरित, उद्भासित आलोक नीहारिका ,

दिग्भ्रमित मृग वृन्द सम, हिय भावना -
वन वन भटके ज्यों अधीर अभिसारिका,

अनहद शीर्ष पर आसीन, वो महासत्ता -
उँगलियों में नचाये जैसे अदृश्य नायिका,

- शांतनु सान्याल 


Bouganvilia by artist  Rachel Walker

13 जुलाई, 2012

नज़्म - - ख़ुमार अनजाना

हर सिम्त इक ख़्वाब आलूदगी,  हर तरफ छाए
ख़ुमार अनजाना, न ज़मीं पे क़दम न 
आसमाँ  ही नज़र आए, ये कैसा 
अह्सासे तिलस्म, जो
आँखों से उतर कर 
होश उड़ा जाए, 
ले चला 
न जाने कौन मुझे, इशारों की ज़बां में उलझाए, ये 
कैसी हम आहंगी, दिल की गहराइयों में बस 
कर, निगाहों से कतराए, न पूछे कोई 
बहकने का सबब मुझसे, बिन
पीये क़दम जाएँ हैं यूँ 
लडखडाए, छू तो 
लूँ ख़लाओं
से लौटती सदाओं को बेसब्र हो कर, काश घूमती
ज़मीं पल भर को रुक जाए, उनकी आँखों 
में है नूर ए दरिया, कोई जा के उनसे 
तो कहे किसी दिन के लिए ही 
सही, इक लम्हा निगाहे 
करम मेरी ओर
ज़रा झुक 
जाए - - - 

- शांतनु सान्याल  

अरबी / फारसी शब्द 
सिम्त - तरफ 
ख़्वाब आलूदगी - स्वप्निल 
तिलस्म - जादू 
हम आहंगी - समन्वय 
खला - शून्य 
नूरे दरिया - आलोक झरना 
ख़ुमार - उतरता  नशा 

12 जुलाई, 2012

नज़्म - - ख्वाहिश इन्तहा


न पूछ मेरी ख्वाहिश इन्तहा
कभी उगता चाँद सा है
बर्फीली चोटियों में
कहीं, और
कभी
डूबता सूरज है तेरी आँखों
के किनारे, ये भीगे
ख़्वाब ही हैं जो
ज़िन्दगी को
खींचते
हैं, हर रात हर सुबह नए -
दहन की तरफ, रोज़
गुज़रता है ये
लिए छाले
भरे
पांव, फिर भी मुस्कुराता
वजूद तेरे पहलू में
आ कर, पल
दो पल - -

- शांतनु सान्याल
   



10 जुलाई, 2012

स्पर्श

उभरता चाँद कोई झील के सीने से, लगे
ठहरा सा, एकटक देखना उसका
कर जाए मंत्रमुग्ध सा,
स्थिर पलकों में हैं
ख़्वाब के
लहर
रुके रुके से, दहकती वादियों को जैसे -
ललचाये घने बादल झुके झुके
से, कोई बारिश जो भिगो
जाए सदियों का दहन,
कोई नदी अनोखी
मिटा जाए
सागर
का खारापन, कोई रात का मुसाफिर
रख जाए बंद आँखों के ऊपर
भीगा अपनापन - -

- शांतनु सान्याल




06 जुलाई, 2012

नज़्म - - जूनून ए हसरत,


इतना मुश्किल भी न था, बिछड़ कर मिलना
दोबारा, ये बात और है, कि उसने कभी
कोशिश ही न की, देर तक  रुके
रुके से थे, ख़ुश्बुओं के
कारवां, बहार
जा चुकी
तो
क्या हुआ, अभी तक माहौल में है उसकी -
सांसों की महक बाक़ी, हवाओं में
है वही ताज़गी, वही पहली
नज़र का जादू, अब
तलक भटकते
हैं जूनून ए
हसरत,
फिर वही *जुस्तजू बेक़रार मंज़िल मंज़िल,
*सहरा सहरा फिर वही *तिशनगी
अंतहीन - - *लाइन्तहां

- शांतनु सान्याल
अरबी / फारसी शब्द
* तिशनगी - प्यास
 *लाइन्तहां - अंतहीन
 * सहरा - मरुस्थल
* जुस्तजू - खोज



05 जुलाई, 2012

नज़्म - - फिर मिलें न मिलें

 

फिर मिलें न मिलें किसे ख़बर, कुछ पल  और
देख लूँ ज़रा, ऐ ज़िन्दगी तुझे  क़रीब से,
फिर झर रही है चांदनी; दर्दे मेहराब
से, यूँ रुक रुक कर, गोया  छू
जाए है ; ज़ख्म ताज़ा 
कोई, न जा दूर 
कहीं; कि
सुन न  पाए सांसों के तरन्नुम, अभी अभी तो -
जगे  हैं सभी सोये हुए अरमां, ख़ुमार -
आलूदा जज़्बात को ज़रा और 
संभल जाने दे, कुछ देर 
यूँ ही और जले
निगाहों  के 
शमा, कुछ और नज़दीकियों को पिघल जाने दे,

- शांतनु सान्याल 

नज़्म - - अनजाने मोड़ पर

ये आवारगी भी इक बहाना है  ज़िन्दगी का,
कि भीगते खड़े हैं हम; भरी बरसात में,
लिए आँखों में अश्क ठहरे हुए, 
न देख पाओगे तुम ज़ख्म 
दिल के मेरे, अभी 
तक हो बहुत 
दूर किसी 
अनजाने मोड़ पर, लेके निगाहों में ख़्वाबों 
की दुनिया,  ये मुस्कराहट हैं या 
कागज़ी फूल, जो भी समझ 
लें लेकिन हक़ीकत से 
ख़ूबसूरत हैं ख़्यालों
की सरज़मीं,
राहत से 
कम तो नहीं, ये अहसास कि तुम हो दिल 
के बहुत नज़दीक - -

- शांतनु सान्याल


02 जुलाई, 2012

नज़्म - - गहराइयों में कहीं

महकता राज़ सा है कोई, उसकी बातों में कहीं,
जब भी मिलता है वो, महक सी जाती है
दिल की विरानियाँ दूर तक, इक
ख़ुमार सा रहता है; खुले इत्र
की मानिंद, भीनी भीनी
सी ख़ुश्बू रहती है
देर तक, दिल
की
गहराइयों में कहीं, वो अक्सर जाता है लौट -
लेकर मेरी सांसों की दुनिया, अपने
साथ, लेकिन छोड़ जाता अपनी
परछाइयां, मेरे जिस्म पर
इस तरह कि ज़िन्दगी
चाहती है, चलना
सुलगते आग
पर
नंगे पांव, दूर बहुत दूर, हमराह उसके क़दमों
के निशां, ज़मीं ओ आसमां से बेहतर,
किसी और जहाँ की तरफ
लापरवाह, बेझिझक,
मुसलसल - -
- शांतनु सान्याल  

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