31 मार्च, 2012


जन अरण्य की ओर

अज्ञात स्पर्श  जो जलरंग चित्र की तरह बिखेर 
जाती है सांत्वना, अनजान सी एक 
दस्तक रख जाती है पुष्प -
गुच्छ दरवाज़े के 
समीप, 
कोई दे जाता है धीरे से सुरभित अनुबंध, फिर 
जीवन है अग्रसर छूने को प्रतिबद्धता, 
फिर ह्रदय करता है अंगीकार 
भूल कर विगत सभी 
दुःस्वप्न, भोर 
की तरुण 
किरणें, भीगे पंखुड़ियों का हौले हौले खुलना -
निसर्ग भर चला हो जैसे पुरातन घाव,
कोई अदृश्य स्वर में फिर गा 
चला है प्रभाती राग, दे 
रहा हो ज्यों 
आह्वान,
जीवन संघर्ष के लिए फिर व्यक्तित्व है तैयार.

- शांतनु सान्याल
painting morning sunlight-watercolor by Sergey Zhiboedov 

29 मार्च, 2012


मोक्ष की प्राप्ति 

मांगी न थी हमने, कोई अमूल्य इच्छापत्र या
राज सिंहासन, सिर्फ़ चाहा था परिचय -
पत्र की वापसी, जो हुतात्माओं 
की थी धरोहर, लहू में 
अंकित वो शपथ 
पत्र जिसमे 
थे वचनबद्ध, सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु -
निरामयः की भावना, न जाने कहाँ 
गए वो पृष्ठ जिनकी पंक्तियों 
में सुलगते थे, मानवता 
के अखंडित लौ, 
वो कल्प 
वृक्ष जिसकी शाखाओं में उगते थे देश प्रेम के 
कोंपल, वो  भव्य बरगदी वात्सल्य जो 
समेट ले अपनी छाया में सभी 
को समरसता के साथ, 
न जाने कहाँ 
गयीं  वो
संवेदनाएं जो कभी बहती थी ह्रदय मध्य, अब 
तो सांस भी लेनी हो तो लेनी होगी 
भ्रष्ट शासकों  से अनुमति, 
अपना मृत देह लिए 
फिर मैं खड़ा 
हूँ उसी 
मणिकर्णिका घाट पर दोबारा कोई तो आगे 
बढे, करे मुझे श्मशान शुल्क से 
मुक्त कि चाहती है मेरी 
आत्मा इस पवित्र 
भूमि में 
दोबारा मोक्ष प्राप्ति - - - 

- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/

Sun Rising in Fog

  

28 मार्च, 2012


आत्मसात 

मूल्यांकन जो भी हो, सच तो ये है कि अस्तित्व 
को बिखेरना सहज नहीं, चौखट के बाहर
मैं रहूँ या परछाई, हर दृष्टि में
न मैं याचक न तुम ही हो 
दाता, उनकी 
अपनी हों,
कदाचित  बाध्यताएं, आंचल समेटने से पूर्व  बंद 
हो गए आशीषों के द्वार, भाग्य लेखन 
जो भी हो, बंद होते नहीं उद्भासित 
दिव्य पांथशाला, सुपात्र  की 
परिभाषा किसने गढ़ी
उन्हें सठिक हो 
ज्ञात,
ऋत्विक ने तो सींचा था पवित्र जल सबके लिए 
एक समान, ये कहना कठिन है, कौन
कितना और किस तरह कर 
सका उसे परिपूर्ण 
आत्मसात.

- शांतनु सान्याल 
mystic light 



अदृश्य छाया 

अंतहीन चाहत जीवन के, लेकिन हाथों में 
चार प्रहर, कभी तो आ बन कर सांध्य
प्रदीप, शून्य देवालय हैं कब से 
प्रतीक्षारत, उठ चले प्राणों 
से ज्यों धूम्र वलय, 
घिर चले हों 
जैसे 
ईशान्यकोणी मेघदल, कभी तो आ यूँ ही 
निशि पुष्पित गंधों में ढल कर, 
भर जा सांसों में कोई 
चंदनी आभास, 
रख जा 
फिर से कोई, नयन पातों पर स्वप्नील 
आकाश, सजने दे क्लांत यामिनी 
खिल चले हों जैसे रजनी 
गंध के वृंत, लिख 
जा पुनः 
अप्रकाशित, स्निग्ध बिहानी गीत, मन के 
स्वरलिपि हैं आतुर, फिर उसे 
गुनगुनाने को, दे जा 
कोई ओष में 
भीगी 
जीवन प्रभात, तृषित हिय चाहे दो पल 
विश्राम - - - 

- शांतनु सान्याल
rare flower 1

27 मार्च, 2012

अर्थहीन नहीं वो बूंद

इस सुबह शाम के लेखाचित्र में कहीं,
किसी एक बिंदु पर था, ठहरा सा 
प्रणय बूंद पारदर्शी, उठते 
गिरते  तरंगों के 
भीड़ में 
लेकिन वो अपनी बात कह न सका, 
दौड़ गए सब मधुमास के पीछे, 
हस्ताक्षर चाहिए मन में 
या देह की भूमि है 
पंजीयनहीन, 
कहना आसान नहीं, वो चाह कर भी 
ज्यादा दूर बह न सका, एक 
अनुबंध जो कारावास 
में भी मुस्कुराता 
है, जीवन 
की वही प्रतिबद्धता, जो दूसरों के लिए 
उत्कीर्ण हैं, स्वयं की आत्म कथा 
तो अर्थहीन हैं, यही सोच-
उसे  खुले पिंजरे से 
कभी बाहर
उड़ा  न सका, वो बूंद अपनी जगह से आगे 
इसलिए बढ़ न सका - - - 

- शांतनु सान्याल

25 मार्च, 2012

किसी दिन के लिए ही सही - -


रेखांकित पंक्ति  से कभी बाहर निकल कर
तो देखें, हाशिये में भी कुछ सांसों के 
शब्द हैं जीवित, हस्तलिपि 
उसकी  ठीक नहीं तो 
क्या, कभी 
हथेली पर बिखरे रेखाओं को जोड़ कर तो 
देखें, उस कोने पर जो गुमसुम सा, 
एकाकी बैठा हुआ है शिशु,
कभी समय मिले तो 
उसे पुचकारें, 
सर पर 
ज़रा हाथ फिरा के तो देखें, जीवन का प्रति -
बिम्ब है अधूरा, अहाते में बिखरे हुए 
फूलों को पुष्पदान में सजा के 
तो देखें, आत्मीयता की 
परिभाषा जो भी हो, 
कभी किसी 
दिन के लिए ग़ैरों को भी अपना बना के तो 
देखें - - - 

- शांतनु सान्याल  
Painting  - a child - by Denise Cole 

24 मार्च, 2012


परिचयहीन 

अर्थहीन न थी वो अंतर्मन की यात्रा, इसी 
बहाने सही, स्वयं को पहचानने 
का तो अवसर मिला, मैं 
चाह कर भी उसे 
भूला न 
सका, वो चाह कर भी मेरे समीप आ न 
सका, इस नीरवता में थे न जाने 
कितने भावनाएं समाधिस्थ, 
द्वार तक पग बढे थे 
लेकिन पा कर 
भी उसे 
पा न सका, गंतव्य था मेरे सामने बांह 
फैलाए, क़दम उठने से पहले 
ढह गए सभी ताश के 
घर सहसा, हाथ
बढे 
लेकिन छलकता जाम उठा न सका, फिर 
जीत गए तुम नियति के साथ,
अप्रत्याशित भू कम्पन, 
उस मोड़ तक मैं 
जा न सका, 
पा के 
भी तुम्हें पा न सका, अपना परिचय बता न 
सका. 

- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/ 
Art Quiet Pond by  Robert Kuhn 







21 मार्च, 2012

उठालो अहद दोबारा 

अजीब सी है दीवानगी किसी मोड़ पे रूकती ही नहीं,
आवारापन और ये परछाई कभी वो मुझ से
आगे और कभी ज़िन्दगी है हैराँ खड़ी
मेरे सामने, वो फ़सील जो
ढह गया  बुझ कर,
ज़माना हुआ,
कौनसी
आंच लिए जिगर में भटकती हैं, फिर  तुम्हारी -
मुहोब्बत, पिघल कर, धुएं में उड़ गए
मोम से जज़्बात, अब शमा की
दुहाई लाज़िम नहीं,  हो
सके तो चुन लो
आसमां के
आंसू,
सुलगते दामन में बेक़रार से हैं हसरतों की कलियाँ,
भीग जाएँ दोबारा मुरझाये जुस्तजू, कि
सूरज निकलने में ज़रा वक़्त है
बाक़ी, उठा भी लो फिर
मुस्कराने का
अहद,
ज़िन्दगी टूट कर पुकारती है  तुम्हें बार बार - - -

- शांतनु सान्याल 
अहद -commitment 
फ़सील - firewall 

08 मार्च, 2012


तन मन रंग डारी उसने -

कौन रंग गया देह से लेकर गहन मन की भावना,
वो शाश्वत स्पर्श, सजा गया इन्द्रधनुषी संवेदना,

अकस्मात्  झंकृत, ज्यों सुप्त जीवन के  सरगम,
कहीं आँचल, कहीं काजल , होश नहीं कहाँ हैं  हम, 

पूछते हैं, ख़ुद से ख़ुद का ही  खोया  हुआ  ठिकाना,
जमुना बहे कि प्रणय नीर मुश्किल है, उभर आना,

कदम्ब डार या बाहों का हार, हर ओर उड़े गुलाल, 
तन छुए तो मन अकुलाय, कैसा है ये मायाजाल,

- शांतनु सान्याल
PAINTING BY SARITA SINGH - INDIA

02 मार्च, 2012

जलते पगडंडियों में दूर तक -

वो बिखराव जो समेटता है मुझे अपने हर बूँद
में, उसी भीगे अहसास में ज़िन्दगी चाहती
है फिर बिखर जाना, वही मुस्कान जो
मुझे देता है सुकूं, हर बार टूट कर
जुड़ से जाते हैं सांसों के
नाज़ुक मरासिम,
अभी तो
छुआ है सिर्फ़ ख़ुश्बू की परत को, क़ुर्बत को
ज़रा और महक जाने दे, सजे कुछ
देर और  जाफ़रानी शाम, ढले
तो सही सूरज मुक्कमल
तौर से, रात के
आँचल में
उभरे ख़्वाबों के कशीदाकारी, छन कर आने दे
गुलमोहर के पत्तों से थोड़ी सी चांदनी,
रूह ओ ज़िन्दगी फिर चाहती हैं
चंद लम्हात  तेरी निगाहों
के छाँव में यूँ ही
गुज़ारना,
फिर चाहे तो ले चल, क़िस्मत मुझे दहकते हुए
पगडंडियों में दूर तक - - -

- शांतनु सान्याल



अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past