27 जून, 2011

ग़ज़ल - - तिश्नगी

इधर 
 से  गुज़रीं  हैं  शैलाबे  फ़लक बअज़ दफ़ा 
तिश्नगी  लेकिन  है मीलों लम्बी  बेक़रां  बहर 
वो  ख़लाओं  में अक्सर  मेरा  अक्श  ढूंढा  किये 
हूँ  मुद्दत  से  मैं  हामिद दिल के मुतलक़ भीतर 
बाहोश  उठा  तो  लिया था उसने  ये अहदे  वफ़ा 
सोचा भी  नहीं  के  जानलेवा  है कितना ये  ज़हर 
जिस्त  की  वो  तमाम  तहरीरें  जो वक़्त ने  दिए 
पढ़ा  उसने  नम आँखों  से, बेख़बर  शामो  सहर 
 न  जान  पाया  दिल  की  गहराइयों  का  राज़
ठिकाना  ही नहीं  मालूम,  है मारुफ़  ये रहगुज़र 
अपनी  ही  परछाइयों   से  दर  किनार  वो  चलें 
छूना  चाहे  हैं, वो मुझे  लेकिन भटके हैं दरबदर 
ले  चलो  मुझे  भी  उस  दर महबूबे  मक़सूद 
कि आ  जाय ज़रा  सी  नींद  जागता रहा  उम्रभर 
उठा  भी लो   कोई  पत्थर  मजमा  है  इस  क़दर 
है ये  जिस्म  मजरूह, कामिले  इश्क़  में  तरबतर,

- -- शांतनु सान्याल

हामिद - छुपा हुआ 
मुतलक़ - गहराई तक 
कामिल - पूर्ण 
बहर   - सागर 
बेक़रां - अथाह 
बअज - कई 

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