13 अप्रैल, 2011

कटाल के फूल

ज़िन्दगी की वो तमाम मजबूरियां
हमने यूँ छुपा ली, लोग समझे की
दर्द की इन्तहां हो गई -
दरअसल किसी की मुहोब्बत ने हमें
सख्त पत्थरों में तब्दील कर दिया,
ज़िद्दी हवाओं ने आखिर अपना रुख़
मोड़ा, लड़ाकू तूफान समझौता नहीं
जानता, कभी कभी प्यार में खुबसूरत
हार में भी जीत की महक होती है,
चट्टान की दरारों में अक्सर कटाल के
फूल खिलते देखे हम ने, तुम चाह कर
भी दामन बचा न पाए -
 शबनमी बूंदों की तरह ज़िन्दगी में
बूंद बूंद बिखरते चले गए, कंटीला ही
सही, मेरा वजूद तुम्हें अपना बना गया - -
- शांतनु सान्याल

07 अप्रैल, 2011

संभवतः


सुबह फूलों की बहार वो भीगा रविवार 
सहसा पुराने दर्पण का टूट जाना 
हाथों से फिसल ज़मीं  पर बिखर जाना 
कुहरा मय आकाश, धूसर बादलों के दाग़ 
हस्त चिन्हों की तरह स्थूल 
वाष्प कणिकाएं , खिडकियों के शीशे
आईने के टुकड़ों का संग्रह 
फूलों के गमले, कुछ अनकही बातें 
पुराने ख़तों का उड़ उड़ बिखर जाना
अर्ध पढ़ी किताब के पृष्ठों का आन्दोलन 
दरवाज़े पर दस्तक का आभास 
सोंधी ख़ुश्बू संभवतः वृष्टि आगमन 
एक शिशु हाथों में लिए नन्हा सा फूल 
कहे आओ मेरे साथ बाहर उड़तीं हैं 
कितनी रंग बिरंगी तितलियाँ 
आँखों में जीने की उम्मीद 
बादलों का ज़ोरों  से बिखर  जाना.
--- शांतनु सान्याल 

05 अप्रैल, 2011


सबब- ए - रतजगा 
गहराइयाँ सांसों की, तुम जान ही न पाए 
सतह पर बहे चाँद का अक्श लिए 
छू तो लिया हमको बेक़रारी में यूँ ही 
दिल की नाज़ुक परतों तक कभी लेकिन 
पहुंच ही न पाए,
आँखों तलक आ रुक सी जाती हैं आहटें 
शीशे की ज़मीं थी शायद तुम चले ज़रूर 
लेकिन नक्शों क़दम छोड़ न पाए 
ये तलाश की आती हैं अनाम ख़ुशबू कहाँ 
से, खिड़कियाँ खोलीं, परदे सरकाए 
दूर तलक देखा, थी मुसलसल ख़ामोशी 
बरस रही थी चांदनी या टूट रहे थे तारे 
ये खलिस दिल की, ये बेचैनी का आलम 
सबबे रतजगा लेकिन तुम 
जान ही न पाए !
--- शांतनु सान्याल

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