24 नवंबर, 2010

नज़्म - - मासूम आँखें

ख़्वाब, एक अजनबी की तस्वीर
और कुछ टूटे प्याले, मैंने
रखे हैं  संभाले, किसी
मिल्कियत की
तरह,
सहम से जाये है ज़िगर जब
अल्बम को छुए  कोई,
ज़िल्द की खूबसूरती
इतनी कि  लोग
समझे,
पुराने पन्नों में है ज़िन्दगी
के आबसार निहाँ,
न पलटों मेरी
जाँ, परतों
को इस
बेदर्दी से कि भूले लम्हात
को समेटना हो मुश्किल,
बड़े ही जतन से
परत दर
परत
हमने किसी की निशानी
सुलगते सीने के तहत
दबाये रखा है,
ढलती
दुपहरी दौड़तीं है नाज़ुक
धूप की जानिब
तितलियाँ
उडी  जा
रहीं हों जैसे दूर तलक
उदास हैं किसी बच्चे
की मासूम आँखें,
तकता है वो
खुली
हथेलियों को कभी, और
कभी देखता है
ख्वाबों को
धूमिल
होते,
- -  शांतनु सान्याल

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