11 नवंबर, 2010

ग़ज़ल - - नीलामी का मंज़र

वो तमाम चेहरे आज फिर बेनक़ाब नज़र आए
पर्दा- ऐ -दिल पे सिलवटें बेहिसाब नज़र आए,
अब तक़दीर की बेवफ़ाई न पूछ मेरे महबूब
शिक़स्त से पहले वो, फिर कामयाब नज़र आए,
कभी अक़ीदत का बाइस था मेरा वजूद भी लोगों
वक़्त बदलते ही उन्हें ज़िन्दगी अज़ाब नज़र आए ,
बड़ी नफ़ासत से संजो रखा था किसी की मुहोब्बत
दिन ढलते ही वो कभी सहरा कभी सैलाब नज़र आए,
जो कभी हमक़दम हमराह था, ज़िन्दगी के सफ़र में
पुल के ढहते ही अचानक दूर एक ख़्वाब नज़र आए,
रस्म-ओ- रिवाज की अहमियत से था अब तक बेख़बर
दिल क्या टूटा हज़ारों बिखरे हुए इन्क़लाब नज़र आए,
पूछते हैं वो मेरी दीवानगी का सबब अक्सर ज़माने से
पिघलते हदीद भी उनको ऐ दोस्त शराब नज़र आए,
नीलामी का मंज़र था बहोत ख़ूबसूरत ऐ अहदे-वफ़ा
हद-ऐ-नज़र तमाम जान-ऐ -ज़िगर अहबाब नज़र आए,
-- शांतनु सान्याल

3 टिप्‍पणियां:

  1. प्रिय मित्रों दिल की गहराइयों से आप सभी लोगों का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा / आप लोगों से उत्साह व् स्नेह / मार्गदर्शन की अपेक्षा रहेगी ,सस्नेह धन्यवाद /

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