29 नवंबर, 2010

क्षणिका - - सजल नयन

सजल नयन थे ढूंढ़ न पाए हम तुमको
कुहासे  में ढक चुकी थीं पुष्प वीथिका,
अभिसारमय थे निशीथ व ज्योत्स्ना
खिले थे हर दिक मालती व यूथिका,
कण कण में थे ज्यूँ सोमरस घुले हुए
रौप्य या स्वर्ण रंगों में थी मृतिका,
विचलित ह्रदय एकाकी हंस अकेला
टूट बिखर जाय जैसे कोई वन लतिका,
-- शांतनु सान्याल

आत्मसात

शंख, सीप,रेत कण, शल्क की उतरन
समुद्र तट  था या वक्ष स्थल हमें ज्ञात नहीं
लवणीय प्रांतर अथवा पलकों से झरे थे
चाँदनी, हमने तो सर्वस्व आत्मसात किया
जो भी अवशेष थे आलिंगनबद्ध रहे, निःशब्द
हम दग्ध पाओं से चलते रहे किसी के
पद चिन्हों में, सप्तपदी के मन्त्रों की तरह
उच्चारित थे सागर उर्मि, अग्नि साक्षी थे
निशाचर पक्षी या अंतर्मन की छाया
तुमने जिस तरह चाहा हमने उसी दिशा में
मेघ की भांति अपने आप को बरसाया
हाड,मांस, रुधिर, स्नायु तंतु जो भी
देह के पांथशाला में थे, हमने प्रतिपल उन्हें
प्रतिदान किया, अब और कौनसा क्षितिज
छूट गया  हमें तो मालूम नहीं, ह्रदय झील
में अब क्यूँ बिम्ब हैं कुछ चाँद के उदास
हमने तो जीवन को गहरा रंग दिया
तुमने क्यूँ अपना मुख फेर लिया //
-- शांतनु सान्याल

28 नवंबर, 2010

नीबू के फूलों की महक

नीबू के फूलों की महक ले के 
शाम उतरी है फिर धीरे धीरे 
छत मेंअभी तक फैले हैं कुछ 
प्रीत के सपने बेतरतीब, रंगीन 
कपड़ों की तरह, हवाओं में 

लहराते हुए, रात गए तुमने 
उन्हें उतारा और बिस्तर में 
फिर बिखेर दिया कल के लिए 
काश सुबह से पहले उन्हें तह 
कर दिया होता, इक धुली सी 
भीनी भीनी खुशबू रह गई 
होती, सलवटों में कहीं खो 
सी गईं वो नफ़ासत, अब तो 
फिर से नए सपनों को धो कर 
जिंदगी के रस्सियों में पुनः 
फैलाना होगा, भीगे भावनाओं 
को नर्म धूप में सुखाना होगा /
-- शांतनु सान्याल 


25 नवंबर, 2010

पारदर्शी प्याला - ग़ज़ल

मैंने खुद ही पिया है पारदर्शी प्याला विष या सलिल जो भी हो,
सलीब पे ज़िन्दगी कब थी आज़ाद प्यास है सृष्टि की आग,
इश्क़ का रंग भी है पानी की तरह जीस्त को हासिल जो भी हो,

वो तमाम चेहरे बन कर आएं हैं फिर रहनुमा या तमाशाई ?
दिल तो मोहरा बन चुका अब आसान या मुश्किल जो भी हो,

न पूछ दीवानगी, ज़हर पियूं ग़र मैं, तुम नीलकंठ बन जाना,
हमने हयात-ऐ- फ़िरदौस जी ली मुख़्तसर या तवील जो भी हो,

लोग क्यों किस्तों में करते हैं खुशियाँ तलाश, लम्हा दर लम्हा,
हमने बाँहों में समेट ली ऐ दुनिया दर्द- ए - मुस्तक़बिल जो भी हो,
- -  शांतनु सान्याल
 

न मुश्किल हो

न देखो मेरी जाँ इस तरह कि मानी में ज़िन्दगी मुश्किल हो
बड़ी ख्वाहिस से हमने अक़ीदत क़बूल किया सभी के सामने 
कुछ तो भरम रहने दो ख़ुदा का,कुछ तो बंदगी मुश्किल हो,
आसां नहीं इतना कि हम भुला दें हर शै को तुम्हारी ख़ातिर
इतना क्यों मौसम ने रंग बिखेरा कि अब सादगी मुश्किल हो,
इस क़दर न चाहो मुझे कि टूटने का खौफ़ रहे साया बनकर 
नज़दीकियाँ न बने जंज़ीर , न मासूम आवारगी हो मुश्किल, 
ये निगाहों का हिसाब है बहुत गहरा, जी अक्सर घबरा जाये
दिल चाहे क़ायनात से ज़ियादा,न कहीं अदायगी मुश्किल हो,
--- शांतनु सान्याल


एक बूंद

वो एक बूंद जो पलकों से टूट कर
पत्थरों में गिरा, ज़माना गुज़र गया

तुम्हें याद हो, कि न हो वो  लम्हात
मगर पत्थरों के बीच वो ज़ब्त हो गया
सदियों से लेखक, कवि या शायरों ने
तलाशा उसे, उत्खनन किया रात दिन
वो घनीभूत अश्रु न जाने किस किस रूप
में लोगों ने देखा, और महसूस किया
कल्पनाओं के रंग भरे चित्रकारों ने
जौहरियों ने खुबसूरत नाम दिए
माणिक, मुक्ता न जाने क्या क्या
कैसे समझाऊं वो बूंद तो पलकों से
गिरा ज़रूर, ये हकीक़त है लेकिन
वो अब तलक मेरी दिल की पनाहों
में है मौजूद, काश कोई देख पाता उसे /
-- शांतनु सान्याल 

24 नवंबर, 2010

नज़्म - - मासूम आँखें

ख़्वाब, एक अजनबी की तस्वीर
और कुछ टूटे प्याले, मैंने
रखे हैं  संभाले, किसी
मिल्कियत की
तरह,
सहम से जाये है ज़िगर जब
अल्बम को छुए  कोई,
ज़िल्द की खूबसूरती
इतनी कि  लोग
समझे,
पुराने पन्नों में है ज़िन्दगी
के आबसार निहाँ,
न पलटों मेरी
जाँ, परतों
को इस
बेदर्दी से कि भूले लम्हात
को समेटना हो मुश्किल,
बड़े ही जतन से
परत दर
परत
हमने किसी की निशानी
सुलगते सीने के तहत
दबाये रखा है,
ढलती
दुपहरी दौड़तीं है नाज़ुक
धूप की जानिब
तितलियाँ
उडी  जा
रहीं हों जैसे दूर तलक
उदास हैं किसी बच्चे
की मासूम आँखें,
तकता है वो
खुली
हथेलियों को कभी, और
कभी देखता है
ख्वाबों को
धूमिल
होते,
- -  शांतनु सान्याल

23 नवंबर, 2010

लेकिन

धूप खिली है वादियों में संदली, लेकिन
अँधेरा है अब तलक पहाड़ियों के दूसरी तरफ
बादलों ने उन्हें क्यों दर किनार किया
ख़्वाब बोये थे हमने तो मुहोब्बत के
दोनों ही ढलानों में एक से,
आदम क़द थे वो तमाम आईने
उम्र ही न बढ़ पायी या
हम आईना देखना ही भूल गए,
क्यूँ छोड़ दिया तुमने मुहोब्बत का चलन
सूने झूलों में झूलती है अभी तलक वो यादें
घर से निकले थे हम साथ साथ
मेले के भीड़ में उंगली पकड़ना ही  भूल गए ,
न तुमने  तलाशा हम को, न हम ही खोज पाए
उम्र तो गुज़र गयी इसी उलझन में
रात है गहराई, हम चिराग़ जलाना ही  भूल गए,
 रिश्तों की कमी न थी, लेकिन
हम अपना बनाना ही  भूल गए /
-- शांतनु सान्याल

22 नवंबर, 2010

नज़्म - - बहोत मुश्किल है

बहोत मुश्किल है किसी के लिए
खुद को यूँ ही तबाह करना
परेशां नज़रों से न देखो
आसाँ नहीं दिल को अथाह करना
डूब जाएँ किनारों  की ज़मीं
इस तरह बहने की चाह  रखना
नाज़ुक हैं कांच के रस्ते
धीरे  ज़रा प्यार बेपनाह करना
मौसमी फूलों से न हों मुतासिर
इश्क़ मेरी जाँ बारहों माह करना
खला के बाद भी है  कोई दुनिया
हर जनम में मिलने की चाह रखना -
- - शांतनु सान्याल

21 नवंबर, 2010

ग़ज़ल - - ग़र चाहो तो जवाब दे देना

तुम मिलो तो  सही किसी मोड़ पे, पुराने वो सभी हिसाब ले लेना

बरसती हैं रहमतें, हम  भी अपना आँचल उम्मीद से फैला गए

इक मुद्दत से लिखी हैं बेसुमार ख़त,  ग़र चाहो तो जवाब दे देना /

हर एक लफ्ज़ में छुपे हैं हज़ारों फ़लसफ़ा-ऐ -तिश्नगी ऐ दोस्त

फ़लक है महज इक ख़याल, ज़मीं, सितारे ओ महताब ले लेना/

जिस्त की ओ तमाम मरहले हैं, किसी वीरां अज़ाब की मानिंद

शीशा है टूट जाए तो क्या, इक नया गुलदान-ऐ-ख़्वाब दे देना /

मंदिर की वो तमाम सीढियाँ, वक़्त की नदी निगल सी गई

उम्र गुज़ार दी हमने इबादत में, चलो तुम ही सवाब ले लेना /

परछाइयों से पूछते हैं अक्सर हम अपना ठिकाना दर-ब-दर

मिलो तो सही इक बार, बदले में यूँ ही  ज़िन्दगी नायाब ले लेना /

उठती हैं ज़माने की नज़र हर जानिब, ज़हर बुझे तीरों की तरह

शिकार हों न जाएँ किसी के ज़द में कहीं, दर्द-ऐ-शराब दे देना /

तुम मिलो तो  सही किसी मोड़ पे, पुराने वो सभी हिसाब ले लेना/

 -- शांतनु सान्याल

20 नवंबर, 2010

शबनम की तरह बिखर जाएँ

रजनीगंधा के गुच्छों में शबनम की तरह बिखर जाएँ,
चाँदनी रात है,  दूर तलक बिछे हैं, हसरतों के मोती,
खुशबू-ऐ-जिस्म है या शाख-ऐ-गुल, जी चाहे निखर जाएँ ।
किसी की धडकनों में छलकती हैं मधु बूंदों की खनक, 
इक नशा है, छाया शब्-ऐ-तन्हाई में चाहे जिधर जाएँ,
नज़्म ओ ग़ज़ल, गीत ओ संगीत, राहों में हैं  बिखरे पड़े
किसी के क़दमों तले मौजें हैं रवाँ, दिल चाहे संवर जाएँ,
रात के पखेरू तकते हैं, उनींदी आँखों से बार बार हमको,
 सागर के सीने में कौंधती हैं, बिजलियाँ ज़रा ठहर जाएँ,
कश्तियाँ भूल गये रस्ते, चाँद भटके है  मजनू की तरह,
आसमां ओ ज़मीं के दरमियाँ, शिफर को इश्क़ से भर जाएँ,
इस रात की गहराइयों में चलों खो जाएँ सुबह से पहले,
छु लो  यूँ ही  बेखुदी में, कहीं  शाखों से न  सभी फूल झर जाएँ ।
- -
 शांतनु सान्याल

17 नवंबर, 2010

नज़्म - - एक आहट





 
कुछ दूरियां रहे बरक़रार, कि बेखुदी में खुद को न भूल जाऊं मैं
लरज़ती बिजलियाँ, शाखों से गुल गिरते हैं, हसीं अंगडाई की तरह
शायद लम्बी है ख़ुमारी, कि नशे में हर जुर्म कुबूल न जाऊं मैं
हर एक आहट में, हजारों हसरतें, हसरतों में ज़िन्दगी भटके यूँ ही
जुनूँ के हद से तो निकल आऊं, फाँस-ऐ-इश्क मेंकहीं न झूल जाऊं मैं
ज़िन्दगी की कश्मकश में, खुद का वज़ूद, न समेट पाया कभी
किसी की चाहत में ऐ दोस्त, कहीं चेहरा अपना ही न भूल जाऊं मैं ।
-- शांतनु सान्याल

16 नवंबर, 2010

अनल पथ यात्रि


वो सभी थे कभी महा अनल पथ यात्रि

हाथों में हाथ लिए, वृन्द चीत्कार के मध्य

गहन अन्धकार हो या पुलकित निशीथ

हास्य व् क्रंदन, कभी उच्च प्रतिकार के मध्य

वो थे आग्नेय अरण्य के अनाम वासी

धर्म-अधर्म के बाहर, मानव विचार के मध्य

वो तुमुल प्रणय के साक्षी, सृष्टि के निर्माता

महोत्सव जय गान मेंथे, कभी हाहाकार के मध्य

एक विशाल विह्ग वृन्द, उड़ गये जाने कहाँ

जर्जरित नभ में थे वो, कभी सिंह द्वार के मध्य

कोई उदासीन नेहों से तकता शून्य नीलाकाश

वो यात्रि न जाने कब लौटेंगे इस संसार के मध्य/

-- शांतनु सान्याल

नज़्म - - वो कल भी आज रहा

वो कौन है जो ज़िन्दगी भर साथ रहा
ख़ुशी ओ ग़म का मेरा हमराज़ रहा
वो तमाम ख़त यूँ तो जला दिए मैंने
न भूल पायें वो लरज़ता साज़ रहा
कोई पुराना ढहता महल था शायद
कभी कराह कभी मीठी आवाज़ रहा
रुख़ मेरा अब परछाई नज़र आये
वो कभी ख़्वाब, हसीं परवाज़ रहा
उसे भूल जाने का क़दीम अहद
तोड़ा न गया वो कल भी आज रहा -
--- शांतनु सान्याल

नव स्वप्न


प्रागैतिहासिक हिंसकवृति सहजता से नहीं जाते
रक्त व् मांस की वो ज्वलित गंध
संस्कृति व् सभ्यता के तिमिर गुफाओं में
प्रतिबिंबित होते बारम्बार
सुप्त सरीसृप सम मानवीय अनुबंध
उच्चारित होते अक्सर प्रणय मन्त्र बीच
मैं और केवल मैं प्रतिध्वनि मध्य
हो जैसे सम्पूर्ण वसुधा समाहित
बंधुत्व व् प्रेम जहाँ एक मिथक
दंश प्रतिदंश, सम्बन्ध जहाँ विषदंत
हर पल जैसे मौन चिर विनिमय
परित्यक्त ह्रदय, अवहेलित भावना
अभिशापित देह व् सतत उत्खनन
फिर भी चाहे जीवन एक नव आरम्भ
इन्द्रधनु से छलके प्रतिपल नव स्वप्न /
--शांतनु सान्याल

15 नवंबर, 2010

क्षणिका - - उन्मुक्त आकाश,

शरद शशि उन्मुक्त आकाश, शीत छुअन
चातक स्वर, सुदूर अरण्य, मृग क्रंदन,
मध्य निशा, तरंग विहीन ह्रदय स्पंदन,
तृषित देह व प्राण, अपेक्षित हिंस नयन,
जीवन संग्राम, प्रति पल, मृत्यु अभिनन्दन,
मम व्यक्तिव, धूप दीप हो सम चन्दन,
-- शांतनु सान्याल

नज़्म


लब - ऐ -साहिल पे उसने, कोई राज़ यूँ ही छिपा लिया अक्सर
ख़ामोश निगाहों से सही, कोई बात यूँ ही बता दिया अक्सर,
जो जान के अनजान नज़र आये, नफासत से दामन बचा गए
मुस्कराएअजनबी की तरह, खुद को यूँ ही बचा लिया अक्सर,
हर तरफ थे पहरे, हर जानिब भटकती आँखों के हजूम,
वो आये पैगाम-ऐ-वफ़ा बनकर,इश्क़ यूँ ही जाता दिया अक्सर,
न कोई शक़ न सुबू की थी गुंजाइश, पाकीज़गी तो देखो
अक्श मेरी, अपनी आँखों में चुपचाप यूँ ही बसा लिया अक्सर /
--- शांतनु सान्याल

नदी

वो एक पहाड़ी नदी, छोटी सी नन्ही सी उथली और पत्थरों से भरी सहमी-सहमी, तन्हा तन्हा किसी दर्द भरी टीस की मानिंद खुद को समेटे जैसे बहती हो आहिस्ता आहिस्ता टूटे पुल के नीचे मंज़िल  के जानिब सिमटी सिमटी सावन में अँधेरा बादिलों का डराए उसे कभी इस किनारे कभी उस तट मुसलसल टूटती, बिखरती, संवरती बहती जाती, ऊँचे दरख़्त सायादार उसे ढकते, बेलें छूने को बेक़रार, झरने, नाले जिस्म को चूर करते पहाड़ों का घूरना लगे ख़ौफ़नाक लगे जैसे उसका वजूद ये तोड़ डालेंगे लेकिन वो नहीं रूकती, बहती जाती अपने आप में खोई खोई, गुमसुम गुमसुम कभी जागी कभी जैसे सोई सोई सीने में लिए बेजुबान अफ़साने  अनकही बातें, राज़ की गहराइयाँ, नदी तो सिर्फ बहती जाती, रात दिन गिरह में बांधे अपने जज़्बात, किसी हसीं आँखों से गिरतीं हों जैसे बूँदें थम थम कर, रुक रुक कर ---- -- शांतनु सान्याल

नज़्म - - तलाश

कोई शख्स तन्हा, किसी को हर सू तलाश करता रहा
छू भी न सके जिसको, उसे पाने की आस  करता रहा,
सितारे डूबते गए , दूर स्याह  आसमां की गहराइयों में
न जाने क्यों तमाम रात, खुद को उदास करता रहा,
चाँद की परछाई, समंदर से लुकछुप करती रही बारहा
वो जागी नज़रों में , ख्वाबों को यूँ अहसास करता रहा,
कब रात ढली, अलसाई निगाहों में लिए अफसाने
उम्र भर इसी उलझन में अपने आपको हताश करता रहा,
- - शांतनु सान्याल

14 नवंबर, 2010

उनके जाते ही --


याद आयी वो बात उनके जाते ही
जो कहना चाहे उन्हें बार बार
घिर आयी बरसात उनके जाते ही,
मिट गए क़दमों के निशाँ दूर तक
बिखर गए जज़्बात उनके जाते ही,
अहसास-ऐ-ज़िन्दगी का इल्म हुवा
थम सी गई हयात उनके जाते ही,
क़बल इसके दिल को राहत थी
दर्द बनी मुलाक़ात उनके जाते ही,
न कोई गिला न ही शिकायत थी
बदल गए हालात  उनके जाते ही,
दामन में सज़ाओं की कमी न थी
क़ैद हुई हर निज़ात उनके जाते ही,
सुबह-ओ -शाम की खबर कहाँ
थम सी गई क़ायनात उनके जाते ही,
यूँ तो आसना थे तमाम रहगुज़र से
क्यूँ पेश आयीं मुश्किलात उनके जाते ही,
खो गए फूल,सज़र ओ तितलियाँ
वीरान हुए बागात उनके जाते ही,
दर्पण है गुमसुम अक्स धुंधलाया सा
न बाक़ी कोई तिलिस्मात उनके जाते ही,
-- शांतनु सान्याल

13 नवंबर, 2010

अनाम फूल की ख़ुश्बू - -


वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू !
बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ
और रंग भरी धरती के बीच,
कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने
लाये सात सुरों में जीवन के गीत,
वो कोई अबाध नदी कभी इस
तट कभी उस किनारे गाँव गाँव ,
घाट घाट बैरागी मनवा बंधना
कब जाने पीपल रोके, बरगद टोके
प्रवाह बदलती वो कब रुक पाती
कलकल सदा बहती जाती
वो कोई अनुरागी मुस्कान
अधर समेटे मधुमास,
राह बिखेरे अनेकों पलास,
हो कोई अपरिभाषित प्रीत
आत्मीयता का नाम न दो
ख़ुश्बू, पंछी और नदी
रुक नहीं पाते रोको लाख
मगर, ये बंजारे भटकते जाते
सागर तट के घरौंदें ज्यों
बहते जाये लहरों के बीच।
* *
-- शांतनु सान्याल

12 नवंबर, 2010

ग़ज़ल - - बिखरे बिखरे अहसास,

कुछ याद की पंखुडियां है मौजूद अभी तक टूटे गुलदान के तहत
बिखरे बिखरे अहसास, पिघलते मोम की तरह, बूंद बूंद रिसते हुए
पलकों में अश्क थमें हों जैसे आबसार कोई बियाबाँ के तहत,
जाहिर न हो आम, वो इक सुलहनामा था, भूल जाने का अहद
मुद्दतों से जिसे सजा रखा है, सुलगते दिल-ऐ-अरमाँ के तहत ,
वो शमा जो बुझ कर है रौशन, हज़ार शम्स के बराबर
कोई खुशबू-ऐ-हयात हो जैसे, बिखरा ज़मीं ओ आसमां के तहत,
कोई तो होगा जहाँ में, जिसे मालूम हो उसका ठिकाना
सहरा सहरा, वादी वादी ,मंज़र आये गए उम्र-ऐ- रवां के तहत,
कभी मंदिर, कभी मस्जिद, हर शै पे लिखा पाया उसी का नाम
इक प्यास, इक आश दबी हो जैसे, हर इबारत-ऐ-बयां के तहत,
-- शांतनु सान्याल


11 नवंबर, 2010

ग़ज़ल - - नीलामी का मंज़र

वो तमाम चेहरे आज फिर बेनक़ाब नज़र आए
पर्दा- ऐ -दिल पे सिलवटें बेहिसाब नज़र आए,
अब तक़दीर की बेवफ़ाई न पूछ मेरे महबूब
शिक़स्त से पहले वो, फिर कामयाब नज़र आए,
कभी अक़ीदत का बाइस था मेरा वजूद भी लोगों
वक़्त बदलते ही उन्हें ज़िन्दगी अज़ाब नज़र आए ,
बड़ी नफ़ासत से संजो रखा था किसी की मुहोब्बत
दिन ढलते ही वो कभी सहरा कभी सैलाब नज़र आए,
जो कभी हमक़दम हमराह था, ज़िन्दगी के सफ़र में
पुल के ढहते ही अचानक दूर एक ख़्वाब नज़र आए,
रस्म-ओ- रिवाज की अहमियत से था अब तक बेख़बर
दिल क्या टूटा हज़ारों बिखरे हुए इन्क़लाब नज़र आए,
पूछते हैं वो मेरी दीवानगी का सबब अक्सर ज़माने से
पिघलते हदीद भी उनको ऐ दोस्त शराब नज़र आए,
नीलामी का मंज़र था बहोत ख़ूबसूरत ऐ अहदे-वफ़ा
हद-ऐ-नज़र तमाम जान-ऐ -ज़िगर अहबाब नज़र आए,
-- शांतनु सान्याल

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